कौन रोकेगा, ये दक्षिण गढ़चिरोली का "लाल सलाम" ?

सड़क से लेकर मकान, वाहनों तक नजर आ रही है लाल मिट्टी की धूल की परत, तेजी से पैर पसार रहे इस ‘लाल सलाम’ पर आखिर कोई बोलता क्यों नहीं? 


by फहीम खान, जर्नलिस्ट, नागपुर. 

एक दौर था जब महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े जिले में गढ़चिरोली जिला शुमार होता था. हालात ऐसे बदतर हो गए थे कि कुपोषन भी चरम पर पहुंच गया था. मामले की गंभीरता को देखते हुए उच्च न्यायालय ने गढ़चिरोली के जिलाधिकारी को फटकार लगाई और उन्हें आदेश दिए कि वे जिले के सुदूर इलाकों में भी जाया करें. यही नहीं महाराष्ट्र के राज्यपाल खुद भामरागढ़ जैसी सुदूर तहसील में पहुंचे और उन्होंने वहां पर प्रशासनीक अधिकारियों की बैठक ली. इसके बाद राज्य के मंत्रियों को राज्यपाल ने आदेश दिए कि वे भी सुदूर इलाकों में पहुंचकर सरकारी योजनाओं को जन -जन तक पहुंचाने के प्रयास करें. इसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि कुछ वर्षों में ही गढ़चिरोली जिले से कुपोषण की समस्या हल हो गई. 



लेकिन कुपोषण के बाद भी इस जिले की समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही थी. इसी दौरान नक्सलवाद तेजी से फैला. हालात बद से बदतर होने लगे. जिला पुलिस की मदद के लिए एसआरपीएफ की टुकड़ियों को भेजा जाने लगा. इसके बाद जिला पुलिस ने खुद का कमांडों दस्ता भी बना लिया और फिर एक के बाद एक केंद्रीय अर्द्ध सैनिक बलों का भी साथ जिला पुलिस को नक्सलवाद के खिलाफ की लड़ाई में मिलने लगा. एक समय ऐसा भी आया कि इसी जिले में ऐसी वर्ल्ड क्लास सड़कें बनाई गई कि इनकी मदद से कई नक्सल विरोधी अभियानों में पुलिस को जल्द से जल्द घटनास्थल पर पहुंचने में मदद मिलती रही. उस समय कई बार नक्सल नेताओं ने मीडिया से बात करते हुए यह आरोप भी लगाए थे कि सरकार और प्रशासन को आम जनता से कोई लेना -देना नहीं है. उन्हें तो सिर्फ नक्सलवाद के खिलाफ की लड़ाई में अपनी फोर्स को जल्द से जल्द जंगलों तक पहुंचाने के लिए ही सड़कों का जाल बिछाना है. आज हालात ये है कि गढ़चिरोली की जिला पुलिस, केंद्रीय गृह विभाग यह दावा करने लगे है कि महाराष्ट्र से नक्सलवाद का लगभग खात्मा हो गया है. 


हमने गढ़चिरोली में वह दौर भी देखा है जब तहसील मुख्यालयों में भी शाम होते ही नक्सलियों की गतिविधियां तेज हो जाती थी. लेकिन कई इलाके ऐसे थे जहां नक्सलवाद लाख कोशिशों के बावजूद अपने ‘लाल सलाम’ को पहुंचा नहीं पाया. इसके लिए इस जिले के नागरिकों को सही मायनों में क्रेडिट देनी चाहिए. जिन्होंने नक्सलवाद के खिलाफ की लड़ाई को लंबे समय तक जारी रखा और अंत में उसमें जीत भी दर्ज की. 

लेकिन हाल के दिनों में जब मैंने दक्षिण गढ़चिरोली का दौरा किया तो वाकई में मुझे मेरी आंखों पर यकीन करना कठीन हो गया कि यह वहीं इलाका है जिसने नक्सलियों के ‘लाल सलाम’ को अपने इलाके में फैलने से रोका था. कभी यह इलाका हरे भरे पेड़ों और घने जंगल से घिरा नजर आता था. लेकिन अब चहूंओर आपको सिर्फ दिखाई देती है तो लाल मिट्टी की धूल का गुब्बार. चंद्रपुर जिले के बामनी से आलापल्ली और आगे एटापल्ली तक आपको दूर -दूर तक अब सिर्फ लाल मिट्टी की धूल ही नजर आती है. आलापल्ली में तो मैंने जितने वाहन देखे, सभी लाल मिट्टी की धूल में लिपटे नजर आए. जरा सोचिए, जो लाल मिट्टी धूल बनकर लोगों के जिंदगी को इतना प्रभावित कर रही है, क्या वह उनकी सांसों से होकर शरीर में पहुंचकर स्वास्थ्य के लिए खतरा नहीं बन रही होगी? 


मुझे वर्ष 2001-02 के दौरान गढ़चिरोली में काम करने का मौका मिला था. उस समय मैं दैनिक भास्कर चंद्रपुर में कार्यरत था. चंद्रपुर में धूल और प्रदूषण की वजह से मुझे बहुत खांसी हुआ करती थी. जब मैंने गढ़चिरोली जाने का निर्णय लिया तो मेरे डॉक्टर को यह बात बताई. उन्होंने उस समय मुझे कहा था कि फहीम, अब बहुत जल्द तुमको खांसी से राहत मिल जाएगी. क्योंकि गढ़चिरोली में इतना जंगल और पेड़ है कि वहां प्रदूषण कहीं नजर ही नहीं आता है. उनकी बात सच भी निकली. गढ़चिरोली जाने के बाद मेरी खांसी वाकई में खत्म हो गई थी. मैं करीबन अगले 12 साल तक गढ़चिरोली में कार्यरत रहा. 2012 को अमरावती तबादला होने के बाद भी जब कभी मैं गढ़चिरोली जाता तो वहां के जंगल और हरियाली मुझे अपनी ओर खींचने लगती. लेकिन क्या पता था कि यह प्राकृतिक गिफ्ट लंबे समय तक बनी नहीं रहेगी. विडंबना देखिए, उसी गढ़चिरोली में आज लाल मिट्टी की धूल ने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया है. लेकिन इस जिले की बागडोर संभालने वाले किसी को भी न तो शर्म आ रही है और न ही उसे ऐसा लगता है कि इस मामले पर आगे आकर कुछ बोल ही दे. 


सुरजागढ़ इलाके में खनन के बाद से हालात तेजी से बिगड़ते जा रहे है. यह सभी लोग जानते है. लेकिन पता नहीं क्यों ज्यादातर लोगों ने अपने मुंह पर ताला लगा रखा है. उत्खनन की धूल का ये ‘लाल सलाम’ तेजी से पैर पसारता जा रहा है और खुद को इस इलाके के सिपाही करने वाले शांति का चोला पहनकर खामोश बैठ गए है. कभी कुपोषण और नक्सलवाद की समस्या पर मुखर होकर बोलने वाले सामाजिक कार्यकर्ता तक आज ‘लाल धूल’ की इस समस्या पर बोलने से कतराते नजर आ रहे है. अगर समय रहते इस ‘लाल सलाम’ से निपटा नहीं जा सका तो भविष्य में गढ़चिरोली की अगली पीढ़ियों को धूल के कारण स्वास्थ्य के गंभीर समस्याओं से ग्रस्त देखने पर मजबूर होना पड़ेगा. 


@फहीम खान, जर्नलिस्ट, नागपुर. 

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