एक तोता, एक बच्चा और नक्सलवाद की परछाई – भामरागढ़ की वो तस्वीरें जो आज भी धड़कनों में कैद हैं

✍️ फहीम खान वर्ष 2001 से 2012 तक गढ़चिरोली में बिताया गया मेरा पत्रकारिता जीवन सिर्फ खबरों की तलाश नहीं, बल्कि इंसानियत के नजदीक पहुंचने का सफर था। चंद्रपुर में ‘महाविदर्भ’ और ‘दैनिक भास्कर’ जैसे अखबारों से होते हुए जब मुझे ‘नवभारत’ के जरिए गढ़चिरोली जाने का मौका मिला, तो मैंने उसे हाथ से जाने नहीं दिया। हालांकि नवभारत में मेरा प्रवास अल्पकालीन रहा, पर 'लोकमत समाचार' के जरिए इस ज़िले से जुड़ाव गहराता गया। गढ़चिरोली में जब मैं भामरागढ़ पहुंचा, तब नक्सलवाद अपने चरम पर था। पुलिस थाना और एसडीपीओ का बंगला शाम होते ही सूना हो जाता था। इन्हीं हालातों में एक दिन मैं उपविभागीय अधिकारी विजयकांत सागर के घर पहुंचा। वहीं पहली बार उनकी गोद में पल रहे मासूम रणवीर को देखा—पिंजरे के सामने बैठा हुआ, पिंजरे में बंद एक तोते को निहारता हुआ। उस क्षण ने मुझे झकझोर दिया। जैसे रणवीर और तोता दोनों ही किसी अदृश्य कैद में हों। नक्सल दहशत के कारण न स्कूल, न खेल- उसका बचपन जैसे छीन लिया गया हो।
मेरे कैमरे ने वो दृश्य थाम लिया। 'झरोखा' कॉलम में जब वह फोटो छपी, तो विजयकांत सागर ने उसे संजो लिया। आज भी हर साल वो मुझे याद दिलाते हैं कि “तस्वीर तुमने खींची थी।” कुछ महीनों बाद जब मैं लोकमत के तत्कालिन जिला प्रतिनिधि अभिनय खोपड़े के साथ फिर विजयकांत सागर के घर गया, तो नज़ारा बदला हुआ था। रणवीर आंगन में खुले में तोते के साथ खेल रहा था, अब तोता पिंजरे से बाहर था, ... और रणवीर भी। वह मासूम अब 17 साल का हो चुका है। लेकिन वो दोनों तस्वीरें, और उनके बीच छुपा एक अफसर का संघर्ष, एक मां-बाप की चिंता और एक बच्चे का गुम होता बचपन, आज भी मेरे जहन में जिंदा हैं। सोचता हूं, जब एक पुलिस अफसर का परिवार इतना कुछ झेलता है, तो आम आदिवासी लोगों पर क्या बीतती होगी? गढ़चिरोली ने मुझे बहुत कुछ सिखाया, लेकिन सबसे बड़ी सीख यही थी, जंगलों में सिर्फ पेड़ नहीं होते, वहां लोग रहते हैं, जज़्बात रहते हैं, और तस्वीरों के पीछे बसी होती हैं कहानियां... इंसानियत की कहानियां।

Comments

Popular posts from this blog

मकाऊची प्रेम-गल्ली: त्रावेसा दा पैशाओ

स्वप्ननगरी मकाऊ

ज्वेल चांगी एयरपोर्ट – एक हवाईअड्डा या स्वर्ग का प्रवेशद्वार?