मैं और मेरे गांधी...

by फहीम खान, जर्नलिस्ट, नागपुर. 


2 अक्तूबर 1869 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म हुआ और 30 जनवरी 1948 को उनकी निर्मम हत्या के बाद वो हमें छोड़कर चले गए. लेकिन क्या वजह है कि गांधी हमारे बीच में नहीं होकर भी उनके हमेशा आस -पास होने का अहसास होता रहता है. गांधी को चाहने वाले और उनका विरोध करने वाले जितनी संख्या में है, उससे कई गुणा अधिक संख्या में ऐसे लोग इस दुनिया में है जो गांधी को अपना ही एक हिस्सा मानते है. ये वो लोग है जिन्होंने गांधी को सिर्फ पढ़ा या सुना नहीं है...बल्कि एक अदृश्य गांधी को पूरी ईमानदारी के साथ अपने जीवन का अंग बना लिया. शायद उन्हीं लोगों में मैं भी शुमार होता हूं. मेरे गांधी औरों के गांधी से इसीलिए अलग भी है. 





बात वर्ष 1995 की है, जब मैं चंद्रपुर जिले के सिंदेवाही में रहता था. कक्षा 9 वीं में पढ़ रहा था और अचानक से मेरे जीवन में ऐसा पल आया जब मैंने अपने साथ गांधी को महसूस किया. सिर्फ महसूस नहीं बल्कि मैंने गांधी को अपने साथ बात करता हुआ भी पाया. सिंदेवाही -नागभीड़ मार्ग पर एक छायादार पेड़ हुआ करता था. इवनिंग वॉक करता हुआ जब इस पेड़ के नीचे मैं बैठता तो घंटों मैंने गांधी से बातें की है. शायद यही कारण रहा कि मेरे भीतर से क्रोध धीरे -धीरे खत्म होने लगा. गांधी का साथ पाकर मैं  अपने व्यक्तित्व को बहुत तेजी से निखारता गया. आज जब लोगों को गांधी के नाम पर लड़ता हुआ देखता हूं, तो लगता है सारे बेवकुफ है. गांधी के नाम पर लड़ने की जरूरत ही क्या है? गांधी तो तुम्हारे भी हो सकते है, और मेरे भी. उनकी खासियत ही यही है कि वो सबके है, सबके साथ भी. 




... फिर पता चला केमिकल लोचा है

मेरे तत्कालिन मित्र किशोर बनकर, उमेश शेंडे,  नितिन तडोसे, शीतल सदनपवार आदि सभी को ये बात उसी समय मैंने बताई थी. लेकिन कोई यकीन नहीं करता था. मैं और मेरे गांधी के बीच के इस रिश्ते को शायद कोई समझ भी नहीं पा रहा था. लेकिन मेरे कुछ दोस्त इस रिश्ते को स्वीकार चुके थे. हालांकि उनमें से कुछ गांधी को लेकर विरोधी सोच भी रखते थे. लेकिन वो मेरे और गांधी के बीच बढ़ते इस रिश्ते पर सकारात्मक ही बात करते थे. इसी बीच वर्ष 2006 में जब मैं गढ़चिरोली में लोकमत समाचार में नौकरी कर रहा था, तभी राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ रिलीज हुई. इस फिल्म को देखने के बाद मेरे दोस्त मुझे फोन करके यही कहते थे, ‘फहीम, तेरे साथ केमिकल लोचा था यार’. खैर वो जो भी था, लेकिन मुझे मेरा अपना गांधी दिलाने के लिए इस ‘केमिकल लोचा’ का भी मैं शुक्रगुजार हूं. 




हिरानी से बात नहीं हुई...

मैं जब लोकमत समाचार के टैबुलाइड अखबार ‘मेट्रो एक्सप्रेस’ के लिए काम कर रहा था तभी वर्ष 2016 में राजकुमार हिरानी अपनी हिरोईन के साथ ‘साला खडूस’ फिल्म के प्रमोशन के लिए हमारी एडिटोरियल टीम से मिले. उस समय मैंने कोशिश की कि हिरानी को ‘मैं और मेरे गांधी’ वाली कहानी बताऊ. लेकिन व्यस्तता के चलते इस पर बात नहीं हो सकी. इसके बाद से मैं भी अपने काम में व्यस्त होता चला गया. 

आज महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के मौके पर 1996 के वो दिन याद आते है तो लगता है कि गांधी को ‘महात्मा’ यूं ही नहीं कहा जाता है. मेरे जीवन में एक सकारात्मक बदलाव लाने और मेरे व्यक्तित्व को कॉन्फीडेंट बनाने के साथ ही अनुशासन को मेरे जीवन का हिस्सा बनाने की पूरी क्रेडिट गांधी को ही जाती है. मेरे लिए मेरे गांधी इसलिए भी ‘महात्मा’ है, क्योंकि वो 1996 के मेरे जैसे सामान्य छात्र के साथ वक्त बिताते रहे. मुझे मार्गदर्शन करते रहे... फिर इसी उम्मीद में हूं कि शायद जिंदगी के किसी मोड़ पर दुबारा मैं मेरे गांधी से मिल सकू और उस समय 1996 से अबतक के मेरे जीवन की बातें उनसे शेयर कर सकू. 

- फहीम खान, जर्नलिस्ट, नागपुर. 

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Comments

  1. बहुत सारगर्भित आलेख, गांधी जयंती पर प्रासंगिक भी। शायद हर आदमी के भीतर गांधी होता है, लेकिन वो उसे दबाकर भीतर के राक्षस को ज़्यादा तवज्जों देता है। बहरहाल आपने बहुत सुंदर लिखा।

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  2. बहुत खूब सर..... ऐसा गांधी सब मे हो

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