लाख टके की बात

बात निकली है तो अब दूर तलक जाएगी!

लाख टके की बात- फहीम खान

अमरावती के संबंध में यह कहा जाता है कि यह बेहद शांति बरतने वालों का शहर है. यहां के लोगों की सहन करने की मर्यादाएं बहुत है. यहीं बात कहते है कि अमरावती के वकीलों पर भी लागू होती रही है. यहां के वकील जजों के लिए हमेशा से ही इस लिए चहेते बने रहे क्योंकि वे जजों का सम्मान करना बखूबी जानते थे. लेकिन जो बात गुरूवार को जिला न्यायालय में हुई और फिर हंगामा मचा. इसके बाद से अमरावती का यह न्यायालयीन विवाद बहुत दूर तक जाने की संभावना दिखने लगी है. असल में गुरूवार को उस अदालती कार्रवाई के दौरान न्यायाधीश सुरभि साहू और अधि. विनोद गजभिए के बीच जो कुछ हुआ वह सही और गलत के तराजू में कोई माई का लाल तोल नहीं सकता है. जज ने जो किया वह न्यायसंगत था या नहीं? वकील ने ऐसा क्या कह दिया कि जज इतना तिलतिला गई? यह सवाल आम आदमी के जेहन में आना स्वाभाविक भी है. लेकिन सवाल यह उठने लगा है कि क्या उस न्यायालय की चार दीवारी के भीतर जो कुछ हुआ था वह इतना गंभीर अपराध था कि उसे उसी चार दीवारी के भीतर सुलझाया नहीं जा सकता था? क्योंकि जज के आदेश और वकीलों का बहिष्कार आंदोलन अब न तो उस न्यायालय का मामला रहा है और न ही अमरावती जिले का. इसे हर तरफ से व्यापक समर्थन मिलने लगा है. इस पूरे मामले को अब ऐसा दर्शाने की कोशिश भी होने लगी है कि मानो हर जज हमेशा ही वकीलों के साथ ऐसा ही व्यवहार करता आया हो. उस चार दीवारी की बात जो मीड़िया में अब तक प्रकाशित हुई है वहीं पूर्ण सत्य है, ऐसा कोई दावे से कह नहीं सकता. कुछ न्यायालयीन सूत्रों की माने तो उस चार दीवारी में दो लोगों ने अपनी मर्यादाएं लांघी थी. यदि जज ने वकील की सूचना को सिर्फ न्याय प्रणाली के लिए स्वीकार कर लिया होता तो शायद यह दिन न देखना पड़ता. यहीं बात वकील पर भी लागू होती है. सूत्र कहते है कि वकील साहब की जुबान भी फिसल गई थी. यदि वह न फिसलती तो यह सबकुछ न हुआ होता. बात दोनों की थी लेकिन अब यह दूर तलक पहुंचने लगी है. गुरूवार और शुक्रवार को पहले ही न्यायालय का कामकाज ठप रहा. अब सोमवार को कुछ हल निकल जाए तो अच्छा होगा. वरना हजारों मामलों से जुड़े लोगों की परेशानी बढ़ाने के अलावा यह विवाद और कुछ हासिल तो करने से रहा. जज और वकील दोनों ही कानून जानते है, कानूनी प्रक्रिया लंबी होती है यह भी उन्हे पता होगा, फिर यह जिद क्यों? वकीलों के विरोध का तरीका बदला भी जा सकता है. जज साहिबा भी संबंधित वकील से अपनी नाराजी दूसरी तरीके से जाहिर कर सकती है. यदि विरोध और कार्रवाई के दूसरे विकल्प मौजूद थे तो फिर यह हंगामा खड़ा करने की जरूरत ही क्या थी? 

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