लाख टके की बात : 102 साल के विश्वविद्यालय को आखिर क्यों नहीं मिल रहा कप्तान?

- फहीम खान राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय की पहचान केवल एक शिक्षण संस्था के रूप में नहीं है, बल्कि यह मध्य भारत की शैक्षणिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक चेतना का केंद्र भी है. सन 1923 में स्थापित यह विश्वविद्यालय आज 100 वर्ष से अधिक का हो चुका है. लेकिन ऐसी प्रतिष्ठित संस्था में एक वर्ष से स्थायी कुलपति की गैरमौजूदगी शिक्षा व्यवस्था के लिए एक गहरी चिंता का विषय है. दिवंगत कुलपति डॉ. सुभाष चौधरी के निलंबन और बाद में असामयिक निधन के बाद से यह पद रिक्त पड़ा है. कभी डॉ. प्रशांत बोकारे को अस्थायी रूप से जिम्मेदारी दी गई, फिर यह कार्यभार प्रशासनिक अधिकारी माधवी खोड़े को सौंपा गया. लेकिन स्थायित्व नाम की चीज अब तक नदारद है.
अब सोचिए, 500 से ज्यादा संबद्ध महाविद्यालय, 4 लाख से अधिक छात्र, दर्जनों विभाग और रिसर्च प्रोजेक्ट, और इन सबका कोई स्थायी कप्तान ही नहीं! यह कोई सामान्य लापरवाही नहीं, बल्कि एक सोची-समझी उदासीनता है. जब देश शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव की बात कर रहा है, नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की जा रही है, विश्वविद्यालयों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में काम हो रहा है, तब नागपुर का यह विश्वविद्यालय ‘प्रभारी कुलपति संस्कृति’ में उलझा हुआ है. क्या यह विश्वविद्यालय के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं है? खास बात यह भी है कि इस पद को लेकर पर्दे के पीछे गतिविधियां तेज हैं. कुछ निजी यूनिवर्सिटी और इसी विश्वविद्यालय के कुछ वरिष्ठ अधिकारी राजनीतिक या संस्थागत लॉबिंग में सक्रिय हो गए हैं. कुछ संगठनों के जरिये अपना दबाव बनवाने की कोशिशें हो रही हैं. क्या शिक्षा संस्थान का सर्वोच्च पद भी अब राजनीतिक गलियारों में सौदेबाजी का विषय बन गया है? 7 जुलाई को कुलपति पद के लिए विज्ञापन निकाला गया है और 7 अगस्त तक आवेदन मंगाए गए हैं. यानी नियुक्ति प्रक्रिया अभी शुरू ही हुई है, वह भी तब, जब फरवरी में ही चयन समिति में नामांकन हो चुका था. चार महीने केवल मापदंड बदलने में और विज्ञापन तैयार करने में लग गए! सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या 100 साल पुरानी संस्था की गरिमा के साथ ऐसा व्यवहार उचित है? क्या इतने लंबे समय तक नेतृत्वहीन रहकर कोई विश्वविद्यालय प्रगति कर सकता है? छात्रों की समस्याएं, फैकल्टी की नियुक्तियां, शैक्षणिक समझौते, शोध परियोजनाएं, ये सब बिना नेतृत्व के ठहराव में आ जाते हैं. और यह ठहराव सिर्फ विश्वविद्यालय के लिए नहीं, पूरे शिक्षा क्षेत्र के लिए खतरनाक संकेत है. अब लाख टके की बात यही है, क्या नागपुर विश्वविद्यालय की कुलपति के लिए जारी यह ‘प्रतीक्षा’ अब खत्म होगी? क्या इस ऐतिहासिक संस्था को एक दूरदर्शी, निष्पक्ष और योग्य कुलपति मिलेगा? या फिर यह भी किसी राजनीतिक संतुलन का मोहरा बनकर रह जाएगा? क्योंकि अंत में बात फिर वहीं आकर ठहरती है...‘‘बिना कप्तान के जहाज भटकते हैं, और शिक्षा का जहाज अगर भटके तो फिर किसी को मंजिलें नहीं मिलतीं.’’

Comments

Popular posts from this blog

मकाऊची प्रेम-गल्ली: त्रावेसा दा पैशाओ

स्वप्ननगरी मकाऊ

ज्वेल चांगी एयरपोर्ट – एक हवाईअड्डा या स्वर्ग का प्रवेशद्वार?