ये जो 'खाकी' है ना, ये ऐसी ही है...

ये

जो ‘खाकी’ है ना, ये ऐसी ही है...

- फहीम खान,

कल तक आपने ‘खाकी’ वालों को चौराहों पर आपको रोककर जुर्माना ठोकते देखा है. कई बार तो आपको इस खाकी के साथ ऐसे अनुभव भी मिले होंगे कि ये खुद को बहुत अलग समझते है. वर्दी पहनकर ये आप पर रोब झाडते है, आपको ऐसा भी लगा होगा और आपने हो सकता है सार्वजनिक रूप से उनके बारे में ऐसा कहा भी होगा. हमारे शहरों में आयोजित शोभायात्रा, जुलूस, रैलियों में, वीवीआईपी के बंदोबस्त, कर्फ्यू सभी में आपने इस खाकी को हर तरफ देखा होगा. कभी कभी आपको ये भी लगा होगा कि यार इन वर्दी वालों को हर जगह क्यों लाकर खड़ा कर दिया जाता है. जब देखो तब सुरक्षा कारणों का हवाला देकर हमारी आजादी में खलल डालने लग जाते है. अब जब कोरोना वायरस का खौफ बढ़ने लगा तो सरकार ने फिर इन्हीं वर्दीवालों को सड़कों पर तैनात कर दिया. लगे आप पर कार्रवाई करने. माना लॉकडाउन है लेकिन कोई अगर अपने काम से बाहर निकल जाए तो इन्हें किसने ये हक दिया है कि ये ऐसे डंडे बरसाने लगे, ऐसा भी लगा होगा आपको. सही कहू तो हम में से अधिकांश लोगों को खाकी पहने ये लोग वाकई में किसी जल्लाद से कम नहीं लगते होंगे. लेकिन यही डंडे बरसाने वाले इस संक्रमण के समय में अपनी हाथों में भोजन की थाली लेकर, अनाज लेकर, खाने की वस्तुएं लेकर भुखे, जरूरतमंदों का पेट भरते दिखते है तो क्या आपके जेहन में ये सवाल नहीं कौंधता कि आखिर किस मिट्टी के बने है यार ये खाकी को पहनने वाले? पल में डंडे बरसाते है और अगले ही पल इतने समाजशील भी हो जाते है कि अपने सगो जैसा बर्ताव करने लग जाते है. ये भी तो आपको लगता होगा कि ये जो जल्लादों की तरह आपसे बर्ताव करते है, ये कभी इंसान बन ही नहीं सकते. लेकिन सही कहूं तो आपने कभी खाकी को समझा ही नहीं है. आपको उसकी कठोरता नजर आई क्योंकि आपने अपनी आंखों से उसे देखा. अगर आप मन की आंखों से खाकी के भीतर छिपी ममता को समझ पाते तो आज उसके हाथ की थाली को देखकर चौंकते नहीं. असल में हमारे समाज के साथ ये दिक्कत है, हम जो आंखों से दिखता है उसी पर यकीन रखते है.
कल ही की बात है, मैं आॅफीस के लिए निकला था. रामदासपेठ के अंतर्गत रास्तों से निकला तो एक बाइक पर दो पुलिसवाले खाकी वर्दी पहनें हाथ में एक बॉक्स लेकर कुछ खोजते दिखाई दिए. मैंने उनका पीछा शुरू कर दिया. वो जिन रास्तों, गलियों से गुजरे मैं भी उनके पीछे _पीछे चलता गया. इस दौरान मुझे पता चला कि दोनों पुलिस वाले जरूरतमंद, गरीब, भुखे लोगों को खोज रहे है, ताकि बॉक्स में से निकालकर उन्हें भोजन दे सके. दोस्तों मैंने अपने जीवन में खाकी की ऐसी इंसानियत कई बार देखी है. मेरे लिए ये नई बात नहीं है. लेकिन आप लोग, जो ये मान बैठे है कि आप पर डंडे बरसाने वाली खाकी जल्लाद है, आपको मैं ये समझाना चाहता हूं कि किसी के लिए भी कोई राय बनाने से पहले उसके बारे में अच्छे से जान जरूर ले.
दूसरों की भुख का ख्याल रखने वाली खाकी फिर आप पर बरसती है. आपसे बूरा बर्ताव करती है तो ऐसा क्यों? जरा सोचिए, ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें आपकी फिक्र है. आपकी फिक्र इसलिए क्योंकि वो चाहकर भी अपनी नौकरी की वजह से अपने परिजनों की फिक्र नहीं कर पा रहे है. तब उन्हें आपकी फिक्र होने लगती है. वो आपके भीतर अपने परिजनों को देखते है. इसलिए आपकी जिंदगी की परवाह करने लग जाते है. अधिकार के साथ आपको डांटते है, फटकार लगाते है. जरूरत पडने पर डंडे भी बरसाने लगते है. ये सब पूरे हक से कहते है, क्योंकि आपको अपना परिवार का हिस्सा मान बैठते है.
हम सोशल मीडिया में डॉक्टरों को भगवान निरूपित करने वाले मैसेजेस की बाढ आई  हुई देख रहे है. ये सच भी है कि इस त्रासदी में ये डॉक्टर हमारे सभी के लिए भगवान से कम नहीं है. लेकिन ये सच्चाई भी हमें स्वीकारनी होगी कि डॉक्टर इसके एक्सपर्ट है. उन्हें ये पता है कि इससे सुरक्षित कैसे रहना है. वायरस और उसके फैलाव के बारे में भी वो जानते है क्योंकि उनका कार्यक्षेत्र ही ये है. लेकिन सोचिए पुलिस वालों के बारे में इस त्रासदी में वो भी कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे है. जोखिम उठा रहे है. आप ये जानते है कि इनमें से ज्यादातर इस वायरस और इससे निपटने के उपायों के बारे में भी कुछ नहीं जानते है. ये यह भी नहीं जानते है कि वो कितना बड़ा जोखिम उठाकर काम कर रहे है. माना कुछ अधिकारी मेडिकल फील्ड से आए हैै, लेकिन इसकी भी तादात बहुत ज्यादा नहीं है. ऐसे में आपको और मुझे इस खाकी की इस जोखिम को भी समझना पड़ेगा. आज आप भी ये समझ लो ये जो खाकी है ना ये ऐसी ही है. ये हमेशा इसी तरह से जिंदगी जीती आई है. इसके लिए हिंदू _मुस्लिम जैसे भेद, महिला _पुरूष जैसे विभाजन, राज्य, भाषा आदि विवाद कोई मायने नहीं रखते है. हर त्यौहार, हर उत्सव इसके लिए सिर्फ डयुटी भर है. इसलिए ये जब डांटती है, फटकारती है, डंडे चलाती है तो फिर इसे इतने समय के लिए जल्लाद मानने की भूल मत कर देना. ये जो खाकी है ना ये मददगार भी है. जब आप गहरी नींद में सोए हुए होते हो तो इसी खाकी को पहने लोग कितने ही जरूरतमंदों को खाना दे रहे होते है. कितने ही लावारिस लाशों का खुद अंतिम संस्कार कर रहे होते है. खाकी आपसे और मुझ से कई गुणा ज्यादा सामाजिक सरोकार निभाती है लेकिन हमें ये अपनी आंखों से दिखता नहीं है. जो दिखता नहीं है, वो होता नहीं है, ऐसा मानने की भूल मत करो. आज जिद मत करो, घर पर रहो.

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